Sunday, September 9, 2012

इंसान की ज़मीं ओ ये इंसा की डगर है




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इंसान की ज़मीं ओ ये इंसा की डगर है,
इंसानियत को छोड़ ये खामोश मगर है |

इस कदर कुछ यादें जो कुछ मेहरबाँ होंगी,
कुछ कहकशाँ थी यादों की जैसे वो शज़र है |

झुकेगा आसमां जो ज़िन्दगी का ज़मीं पर,
इंसान के बस में तो है पर लम्बा सफ़र है |

ये ज़िन्दगी की डोर हमेशां संग खुदा के है
उठेगा कारवाँ ये अपना किसको खबर है |

अब हो गया ये ज़ख्म-ए-जिगर फिर से हरा यूँ ,
ये दिल का गुलिस्तान अब 'हर्ष' का जिगर है |

_______________हर्ष महाजन

कहकशाँ=हवाओं कि तरंग

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