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हुई यूँ ग़मों की ये शाम आख़िरी है,
चढ़ा दो क़फ़न ये सलाम आख़िरी है |
यूँ भर के ये अखियाँ टपकते जो ऑंसू
वो कहते हैं पीलो ये जाम आख़िरी है |
सफ़र आख़िरी है कदम दो मिला लो,
ख़ुदा का दिया इंतजाम आख़िरी है |
टपकते रहे पर, सकूं था कि इतना
ग़मे ज़िन्दगी का इनाम आख़िरी है |
यूँ ख्वाबों में हर पल रहे उम्र भर जो,
उन्ही के लिए ये कलाम आख़िरी है |
महक तेरे दामन की चारों तरफ है,
यूँ समझो ख़ुदा का पयाम आख़िरी है ।
न हो भूल मुझसे कहीं भूल से भी,
लगे अब मेरी भी ये शाम आख़िरी है ।
---हर्ष महाजन 'हर्ष'
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