यूँ तो दुनियाँ के सभी गम हँस के ढो लेता हूँ,
पर जो याद आए तुम्हारी तो मैं रो लेता हूँ।
यूँ तो अहसास हुआ करता है कि तुम दूर नहीं,
सोच के होगा ये मुमकिन ? मैं यूँ सो लेता हूँ।
ये भी वादा है कि संस्कार न भूलूंगा कभी,
मैं तो अक्सर उन्हीं डाँटो में ही खो लेता हूँ।
उम्र भर धूप में चलते हुए देखा है तुम्हें,
कितने ख़ुदगर्ज़ थे हम सोच के रो लेता हूँ ।
वो हिदायते अनुशासन मैं भी भूला तो नहीं,
उन्हीं बातों को फ़क़त खुद में पिरो लेता हूँ।
---–-हर्ष महाजन 'हर्ष'