...
हाथ की ये लकीरें मेरी.....इधर-उधर जाती नहीं,
हैं तो अपनी ये मगर...समझ में क्यूँ आती नहीं |
खुद ये खामोश मगर इनमें किस्मत का ज़िकर,
कितनी बेवफा हैं कोई गम का पल बताती नहीं |
हैं तो अपनी ये मगर...समझ में क्यूँ आती नहीं |
खुद ये खामोश मगर इनमें किस्मत का ज़िकर,
कितनी बेवफा हैं कोई गम का पल बताती नहीं |
हर्ष महाजन
No comments:
Post a Comment