किस तरह मेले में दो शख्स बिछुड़े खड़े थे
कड़ी दुपहरी में अनजाने वो सिकुड़े खड़े थे
परेशाँ थे वो नए शहर से सब कुछ नया-नया
नयी पहचान में मिलने को दोनों पिछड़े खड़े थे |
कभी मंदिर पे नज़र थी कभी रिक्शे को वो देखें
कभी अनजान को अपना समझ आँखों में वो देखें
कोई अपना सा लगता था कोई बेगाना था बिलकुल
कभी अपनों की खातिर बेगानों को अपना समझ देखें |
मिला सकूं था उसको जो दूर से आवाज़ थी आयी
मिलीं नज़रें जो राही से नज़रें खिलती चलीं आयीं
वो दोनों इस तरह मिले ज्यूँ बेगाने थे कभी न वो
मगर फिर दोस्ती तारीख़ बन खुद ही चली आयी
____________________हर्ष महाजन
कड़ी दुपहरी में अनजाने वो सिकुड़े खड़े थे
परेशाँ थे वो नए शहर से सब कुछ नया-नया
नयी पहचान में मिलने को दोनों पिछड़े खड़े थे |
कभी मंदिर पे नज़र थी कभी रिक्शे को वो देखें
कभी अनजान को अपना समझ आँखों में वो देखें
कोई अपना सा लगता था कोई बेगाना था बिलकुल
कभी अपनों की खातिर बेगानों को अपना समझ देखें |
मिला सकूं था उसको जो दूर से आवाज़ थी आयी
मिलीं नज़रें जो राही से नज़रें खिलती चलीं आयीं
वो दोनों इस तरह मिले ज्यूँ बेगाने थे कभी न वो
मगर फिर दोस्ती तारीख़ बन खुद ही चली आयी
____________________हर्ष महाजन
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