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जुस्तजू थी हमें जिसकी वो ज़ख्म बन रिस्ते रहे,
टूट कर बिखरे तो थे पर हमदर्द बन के पिसते रहे |
जुस्तजू थी हमें जिसकी वो ज़ख्म बन रिस्ते रहे,
टूट कर बिखरे तो थे पर हमदर्द बन के पिसते रहे |
__________________हर्ष महाजन
इस ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव के साथ कई कवि सम्मेलनों और महफ़िलों में शिर्कत करते हुए ज़हन से निकले अहसास, अल्फास बनकर किस तरह तहरीरों में क़ैद हुए मुझे खुद भी इसका अहसास नहीं हुआ | मेरे ज़हन से अंकुरित अहसास अपनी मंजिल पाने को कभी शेर, नज़्म , कता, क्षणिका, ग़ज़ल और न जाने क्या-क्या शक्ल अख्तियार कर गया | मैं काव्य कहने में इतना परिपक्व तो नहीं हूँ | लेकिन प्रस्तुत रचनाएँ मेरी तन्हाइयों की गवाह बनकर आपका स्नेह पाने के लिए आपके हवाले है उम्मीद है आपका सानिध्य पाकर ये रचनाएँ और भी मुखर होंगी |
Lovely !
ReplyDeleteDivya srivastava ji bahut bahut shukriyaa !!
ReplyDeleteबहुत खूब ......
ReplyDeleteDr. Nisha ji bahut bahut shukriyaa aapki pasandagi ke liye !!
Deletekyaa baat hai ....:))
ReplyDeleteHarkeerat ji mamnoon hooN !!
Deletekyaa baat hai ....:))
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