Friday, March 29, 2013

बे-गैरतों ने खाई थी, शायद कसम बिछुड़ने की

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बे-गैरतों ने खाई थी, शायद कसम बिछुड़ने की,
हम शिकवों में मशगूल रहे खबर नहीं उजड़ने की |

माना वो हुस्न चाँद सा, हम भी मगर थे कम नहीं ,
हम धड़कने गिनते रहे, खबर न सांस उखड़ने की |

किस तरह जिए हैं हम लिख-लिख के शेर दीवारों पे,
उठा धुंआ तो धड़का दिल,खबर नहीं गुजरने की |

लिख रहे हैं नज्में अब, अपने ही दिल के टुकड़ों पर,
कुछ साँसों की मिली हमें, मोहलत उन्हें कबूलने की |

फलक पे आज लगे है ज़श्न, यूँ  बिजलियाँ कड़क रहीं,
शायद खुदा ने राह दी , अब कब्र में उतरने की |

________________हर्ष महाजन

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