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कितना बे-रहम है वो मेरी ग़ज़ल को नज़्म कर दिया,
किरदार जो उसमें सितमगर का था भस्म कर दिया |
मोहब्बत खेल है डायरी में उसकी लिखा था पढ़ा मैंने,
फ़क़त इसी बात ने ही रुतबा उसका खत्म कर दिया |
किस तरह करूँ यकीं उस पर अब कोई वज़ह भी तो हो,
शख्स महफ़िल में होता तो है मगर इक रस्म कर दिया |
अश्क बहाऊँ ये भी....अब बे-वज़ह सा लगता है 'हर्ष,
मैंने भी अपनी सभी ग़ज़लों को अब नज़्म कर दिया |
_________________हर्ष महाजन
कितना बे-रहम है वो मेरी ग़ज़ल को नज़्म कर दिया,
किरदार जो उसमें सितमगर का था भस्म कर दिया |
मोहब्बत खेल है डायरी में उसकी लिखा था पढ़ा मैंने,
फ़क़त इसी बात ने ही रुतबा उसका खत्म कर दिया |
किस तरह करूँ यकीं उस पर अब कोई वज़ह भी तो हो,
शख्स महफ़िल में होता तो है मगर इक रस्म कर दिया |
अश्क बहाऊँ ये भी....अब बे-वज़ह सा लगता है 'हर्ष,
मैंने भी अपनी सभी ग़ज़लों को अब नज़्म कर दिया |
_________________हर्ष महाजन
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