Saturday, May 23, 2015

गर जुल्फी सायों में सर नहीं, शेरों में फिर वो असर नहीं

चंद लम्हें पहले एक मुक्तक नज़र किया था आपके .....उस पर कुछ ख़त मिले थे , अब उसी मुक्तक में कुछ मिसरों का और इजाफा हुआ तो सोचा उन्हें फिर से आपके हवाले कर दिया जाए....उम्मीद है आपके स्नेह से वो आगे बढ़ेंगे | शुक्रिया !!!



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आँखों में लुत्फ़-ए-शराब वो, मेरी जिन्दगी की किताब वो,
बचपन से उठते सवाल का, हर ख़त में उसका जवाब वो |
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महफ़िल में गर वो शबाब हैं तो कलम से हम आफताब हैं,
हर हुनर में गर हैं जुदा-जुदा, हर दिल में अब माहताब वो |
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होटों पे मखमली ताब सी , गुलशन में खिलते गुलाब सी,
हैं वो नरगिसी मस्तानगी , जालिम सी कातिल ख्वाब वो |
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गर जुल्फी सायों में सर नहीं, शेरों में फिर वो असर नहीं,
अब ग़ज़ल कहूँ या नज़म इसे, मेरी हर नसर पे नकाब वो |
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मुझे जब मिले वो हुई खबर, हुए टुकड़े-टुकड़े कई जिगर,
ये सितम भी सहते निकल गई,ये उम्र हुई  इक किताब वो |
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________________हर्ष महाजन

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