मेरे ख्यालात मेरी पेशानी पे अक्सर झलकते हैं,
तमाम रात सोचता हूँ फिर उस चाँद पे अटकते हैं ।
फिर किस तरह कम करूँ गम-ए-दौराँ ज़िन्दगी का,
वो हर बार इस दिल में पनपते हैं फिर भटकते हैं ।
_______________________हर्ष महाजन
तमाम रात सोचता हूँ फिर उस चाँद पे अटकते हैं ।
फिर किस तरह कम करूँ गम-ए-दौराँ ज़िन्दगी का,
वो हर बार इस दिल में पनपते हैं फिर भटकते हैं ।
_______________________हर्ष महाजन
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